बुधवार, 25 जून 2008

एक प्रेरणादायक समाचार :पटना में ऍमबीऐ डिग्रीधारी युवा ने सब्जी का ठेला लगाया

जब भी अख़बार के पन्ने पलटो तो राजनीतिक लडाई झगडे ,अपराध,क्रिकेट,के समाचार भरे पड़े रहते है लेकिन कल एक समाचार पर नजरे अटक गई ,एक बार पढ़ा,विश्वास नही हुआ दुबारा पढ़ा , सोचा क्या आज भी ऐसे युवा है जो लीक से हटकर कुछ अलग करने का माद्दा रखते है , समाचार था एक ऐसे युवक के बारे में जो ऍम बी ऐ की डिग्री के बाद भी बहुराष्ट्रीय कम्पनी की नौकरी ठुकराकर सब्जी भाजी की दुकान लगा लिया है इसलिए की किसान को उपज का दाम मिले किसानो की बेहत्तरी ही। ऐसे जाबांज युवक को मेरा सलाम ...............

रविवार, 22 जून 2008

दुर्ग जिले की जनता ने लोकतंत्र को मजबूत किया

हाल ही में दुर्ग जिले की दो नगर पंचायत के अध्यक्षों को रिकाल कर जनता ने समय से पहले कुर्सी से उतार दिया ,इस समूर्ण घटना ने निःसंदेह दुर्ग की जनता का लोकतान्त्रिक जागरूकता को सामने लाया है,अब तक छत्तीसगढ़ में यह प्रक्रिया नही अपनाई गई थी किंतु इस घटना से अब पदासीन नेताओ को जनता का ध्यान रखने हेतु मजबूर होना पड़ेगा, छत्तीसगढ़ में एक साथ तीन नगर पंचायत के अध्यक्षों की कुर्सी से उतरने की घटना भारतीय लोकतंत्र में मील का पत्थर साबित होगी और लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी ,

शनिवार, 21 जून 2008

मंहगाई पर शोर क्यो ?किसान की बात क्यो नही ?

धान के समर्थन मूल्य में जब भी बढ़ाने की बात होती हा तब तब मंहगाई का रोना रोया जाता है,गरीबी की बात की जाती है ,क्यो ?इस देश की अधिकांश जनसँख्या क्रषि आधारित है तथा क्रषि पर आधारित व्यवसाय रोजी रोजगार से जुड़े है और यदि गरीबी है तो इसलिए क्योकि क्रषि में उन्हें पर्याप्त आमदनी नही हो पाती या किसान मजदूरों को ज्यादा मेहताना नही देपाते , क्या कोई देश अपनी अर्थव्यवस्था के मुख्य संसाधन पर इस तरह रोना रोता है, किसानो की बातो को सिर्फ़ इसलिए नजर अंदाज कर दिया जाता है क्योकि भारत में राजनीती प्रशासन मीडिया में शहरी वर्ग का प्रभुत्व है क्योकि राजनीतिज्ञों को किसान नही उद्योगपति चंदा देते है क्योकि वे दाल रोटी नही अमेरिकी पिज्जा पसंद करते है क्योकि वे शहर की कालोनियों में रहते है तो क्यो वे किसान की बात सुनेगे उन्हें तो शहरी वर्ग का ध्यान रखना होता है क्योकि वाही इस देश के कर्ण धार है इसलिए किसान इस देश में दोयम दर्जा रखता है ।
किसी ज़माने में साहित्य में सिनेमा में पत्र पत्रिकाओ में किसान की मूक आवाज को स्थान दिया जाता था लेकिन अब न तो कवियों की कविताओ में ,न कहानियो में किसान है,वे मंहगाई का रोना रोयेंगे फैशन पर आंसू बहायेंगे ,चाँद तारे , जमीन आसमान सब पर लिखेंगे लेकिन किसान की दुर्दशा पर नही ,बेरोजगारी का रोना रोयेंगे लेकिन इस देश में सदियों तक कृषि से जीवन निर्वाह करने वालो पर नही। किसान चूँकिश्रम करता हैदिन की कड़ीश्रम के पश्चात् किसान के पास लिखने पढने के लिए समय नही रहता इसलिए वह यदि अपनी आवाज को कलम से नही लिख सकता तो क्या आपका फर्ज नही बनता,आप भी यदि चुप रहेंगे तो इस देश की कृषि संपदा का पेटेंट विदेशो में होता रहेगा,और हम नेट में सिर्फ़ समाचार पढ़ते रहेंगे की अमुक का पेटेंट हो गया ,इस देश में किसान कर्ज से लड़कर आत्म हत्या कर रहे ,जिस फसल को वह दुलारकर म्हणत परिश्रम से बड़ा करता है उसे जलने की नौबत आती है की दम नही मिल रहे उस वक्त उस किसान की दिल की क्या हालत होती होगी कोई समझ सकता है ,किसानी कोई व्यपार तो नही की दो नम्बर से पैसा बना ले उसे तो जितना म्हणत किया उतना तो मिलना ही चाहिए । क्या पेट्रोलियम उत्पादक देश पेट्रोल के मंहगे होने का शोर मचाते है? नही क्योकि मंहगे पेट्रोल से उनका फायदा होता है क्योकि पेट्रोल उनकी अर्थ व्यवस्था का अंग है, और हमारी अर्थ व्यवस्था कृषि पर टिकी है,

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कहती क्या खेत के मेड से गौरैया

अब फिर से बारीश की रिमझिम फुहार शुरू हो गई,खेत खलिहान से माटी की सौंधी सुगंध की महक बिखरनी शुरू हो गई,खेत के मेड पर चिडियों की चहचाहट की मधुरं ध्वनी आनी शुरू हो गई अब तो फिर से फसल बोए जायेंगे ,जिसमे से छोटे छोटे पौधे अंकुरित होंगे ,और धीरे धीरे बढ़ेंगे ,सब तरफ़ हरे रंग की बहार होगी नदियों उछाले भरेंगी ,और सब तरफ़ किसानो के चेहरे में मुस्कुराहट होंगी ,

गुरुवार, 19 जून 2008

खेती अपन सेती

खेती किसानी के धंधे को या इससे जुडी बात को नेट में ज्यादा देखा पढ़ा नही जाता,एक कृषक का पुत्र भी इस व्यवसाय को मज़बूरी में ही अपनाता है,बात सही भी है खेती कोई छोटा काम नही की घर बैठे पैसा बरसे,किसान मेहनत करता है, योजना बनाता है,उसे क्रियान्वित करता है,तब कही जाकर फसल उगता है। लोग आराम से बिना शारीरिक मेहनत के पैसे मिले उसे ज्यादा पसंद करते है,मेहनत तो सभी करते है कुछ काम में इससे भी कड़ी मेहनत होती है,लोग तकनिकी काम को पसंद करते है,लोग प्रबन्धन के काम को पसंद करते है लोग रुतबे वाली सर्विस पसंद करते है,लोग कुछ ऐसा धंधा करना चाहते है जिसमे दिन दुनी रात चौगुनी वृध्दी हो ,फिर लोग खेती क्यो करे ?

दिन दुनी खेती का रकबा सिकुड़ता जा रहा है अनाज उत्पादन में वृध्दि के बावजूद खाद्यान्न की कमी हो रही है इतना की विश्व के सबसे विकसित देश के राष्ट्रपति तक को दुसरो की थाली में झांकनी पड़ रही की वह कितना खाता है, जनसँख्या जैसे जैसे बढ़ रही खाद्यान की जरुरत भी ,पर खेती के लागत में बढोत्तरी मजदूरों का आभाव ,म्हणत की अधिकता को देखकर अधिकतेर लोग दुसरे व्यवसाय की ओउर उन्मुख हो रहे,आज भी भारत में छोटी जोत के किसान ज्यादा है जो मंहगे क्रषि यन्त्र नही खरीद सकते ,किसानो को उपज का मूल्य भी सही नही प्राप्त होता इस देश की अधिकांश जनसँख्या की क्रषि से जुड़े होने के बावजूद कृषि के समंध में ऐसे बाबु लोग निर्णय ले रहे जो शहर में रहते है जो चिल्लाते रहते है कीमंहगाई बढ़ रहीजो से खाद्यानआयत कर इस देश के किसानो के पेट में लात मारते है जो अपने आपकोअर्थ शास्त्री समझ बड़े बड़ेनीतिगत निर्णय लेते है,